
नांदेड-सिखों के दसवें गुरु “गुरु गोबिंद सिंघ जी” को सरबंस दानी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने अपना पूरा परिवार, अपना पूरा सरबंस त्याग दिया था। वे एक महान कवि, बेहतरीन योद्धा और संत स्वरूप थे जो लोगों का मार्गदर्शन भी करते थे। महज़ 10 वर्ष की आयु में गुरु जी ने गुरु गद्दी संभाली और आगे चलकर सिख धर्म को ‘खालसा’ की पहचान दी।
गुरु जी के बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं लेकिन उनके चार पुत्रों के बारे में काफी कम लोग जानते हैं। सबसे बड़े थे साहिबजादा बाबा अजीत सिंघजी, उनके बाद साहिबजादा बाबा जुझार सिंघजी फिर साहिबजादा बाबा जोरावर सिंघजी और सबसे छोटे थे साहिबजादा बाबा फतेह सिंघजी।
चारों साहिबजादे गुरु जी की जान थे, लेकिन कौन जानता था कि वह समय काफी नज़दीक है जब गुरु जी की ये जानें उनसे दूर हो जाएंगी और वे स्वयं उन्हें शहादत के रथ पर चढ़ाएंगे।
यह वह समय था यह मुगलों से आपसी समझौता करने के बाद गुरु जी ने पूरी संगत के समेत आनंदपुर साहेब का किला खाली कर दिया। वे सभी दिल्ली की ओर जाने के लिए रवाना हो रहे थे, लेकिन रास्ते में आई सरसा नदी को कुछ और ही मंजूर था।
इस घटना से संबंधित गुरुबाणी का एक कथन काफी प्रसिद्ध है ‘राता लंबीया ते रस्ता पहाड़ दा, तुरे जांदे ने गुरां दे लाल जी, सरसा नदी ते विछोड़ा पै गया, उस वेले दा सुन लो हाल जी’।
गुरु जी अपने पूरे परिवार, माता गुजरी जी, अपनी पत्नी एवं चार साहिबजादों को लेकर आनंदपुर साहिब के किले से निकल चुके थे। आगे थी सरसा नदी, तो उस रात कहर बरसा रही थी। पोह के महीने की वह ठंडी रात में बर्फ के समान था सरसा नदी का पानी लेकिन उसे पार किए बिना आगे बढ़ने का अन्य कोई तरीका ना था।
सरसा नदी को पार करते हुए गुरु जी का परिवार बिछड़ गया, बड़े साहिबजादे, 40 सैनिक, गुरु जी के साथ रह गए और छोटे साहिबजादे अकेले माता गुजरी जी के साथ थे। अन्य संगत गुरु जी की पत्नी के साथ थी।
बड़े साहिबजादों को लेकर गुरु जी चमकौर के किले की ओर चल दिए और वहां कुछ पल आराम करने का फैसला किया। उनके पहुंचने की देर थी कि कुछ लोगों ने मुगलों को गुरु जी के अन्य सिखों के साथ चमकौर पहुंचने की खबर दे दी और फिर रातों-रात मुगल फौज ने किले पर हमला बोल दिया।

गुरु जी के अलावा किले में केवल 40 सिख और थे, लेकिन सामने थी दस लाख की मुगल फौज। लेकिन सिख घबराए नहीं, सर्दी के उस कोहरे में उन्होंने छोटे-छोटे गुट में किले से बाहर निकलकर मुगल फौज पर हमला करने का फैसला किया। सिखों के गुटों को बाहर जाकर शहीदी देते देख गुरु जी के सबसे बड़े पुत्र साहिबजादा अजीत सिंघजी ने भी किले से बाहर निकलकर मुगलों का सामना करने की इच्छा व्यक्त की।
गुरु जी द्वारा नियुक्त किए गए पांच प्यारों ने बाबा अजीत सिंघजी को समझाने की कोशिश की कि वे ना जाएं, क्योंकि वे ही सिख धर्म को आगे बढ़ाने वाली अगली शख्सियत हो सकते हैं लेकिन पुत्र की वीरता को देखते हुए गुरु जी ने बाबा अजीत सिंघजीको निराश ना किया।
उन्होंने स्वयं अपने हाथों से अजीत सिंघजी को युद्ध लड़ने के लिए तैयार किया, अपने हाथों से उन्हें शस्त्र दिए थमाए और पांच सिखों के साथ उन्हें किले से बाहर रवाना किया। कहते हैं रणभूमि में जाते ही अजीत सिंघजी ने मुगल फौज को थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया। अजीत सिंघजी कुछ यूं युद्ध कर रहे थे मानो कोई बुराई पर कहर बरसा रहा हो।
अजीत सिंघजी एक के बाद एक वार कर रहे थे, उनकी वीरता और साहस को देखते हुए मुगल फौज पीछे भाग रही थी लेकिन वह समय आ गया था जब अजीत सिंघजी के तीर खत्म हो रहे थे। जैसे ही दुश्मनों को यह अंदाज़ा हुआ कि अजीत सिंघजी के तीर खत्म हो रहे हैं, उन्होंने साहिबजादे को घेरना आरंभ कर दिया।
लेकिन तभी अजीत सिंघजी ने म्यान से तलवार निकाली और बहादुरी से मुगल फौज का सामना करना आरंभ कर दिया। कहते हैं तलवार बाजी में पूरी सिख फौज में भी अजीत सिंघजी को कोई चुनौती नहीं दे सकता था तो फिर ये मुगल फौज उन्हें कैसे रोक सकती थी। अजीत सिंघजी ने एक-एक करके मुगल सैनिकों का संहार किया, लेकिन तभी लड़ते-लड़ते उनकी तलवार भी टूट गई।
फिर उन्होंने अपनी म्यान से ही लड़ना शुरू कर दिया, वे आखिरी सांस तक लड़ते रहे और फिर आखिरकार वह समय आया जब उन्होंने शहादत को अपनाया और महज़ 17 वर्ष की उम्र में शहीद हो गए।
बड़े भाई की शहीदी की खबर सुन साहिबजादा जुझार सिंघजी कुछ दुखी तो हुए लेकिन अब उन्होंने रणभूमि में जाने की इच्छा प्रकट की। कहते हैं बाबा जुझार सिंघजी को ना तो तलवार वाजी को कोई गहरा ज्ञान था ना ही वे तीरंदाजी जानते थे, वे केवल गतका जानते थे।
बाबा जुझार सिंघजी ने रणभूमि में जाने की आज्ञा मांगी तो वहां मौजूद सभी सिख दंग रह गए, 15 वर्ष की मासूम उम्र और शस्त्रों का कम ज्ञान होने की वजह से किसी भी सिख ने जुझार सिंघजी को बाहर जाने की आज्ञा देना सही ना समझा। लेकिन गुरु जी अपने पुत्र की इस बहादुरी से अति प्रसन्न हुए।
जुझार सिंघजी ने उन्हें यह भरोसा दिलाया कि वे भी बड़े भाई की तरह मुगल फौज क्को खदेड़ देंगे, वे भी बड़े भाई की तरह शहीद होना चाहते हैं और अपने दादा गुरु तेग बहादुर जी का नाम फक्र से ऊंचा करना चाहते हैं। 15 वर्ष के पुत्र की मासूमियत के सामने इन बड़ी बातों ने गुरु जी को राज़ी कर दिया।
गुरु जी ने स्वयं अपनी तलवार जुझार सिंघजी को दी और आशीर्वाद देकर गर्व से युद्धभूमि की ओर भेजा। इस बार जुझार सिंघजी के साथ भी कुछ सिंह बाहर गए, शस्त्रों का उत्तम ज्ञान ना होने के कारण जुझार सिंघजी रणभूमि में अधिक समय तक रुक तो ना पाए लेकिन जाते-जाते मुगलों की एक बड़ी टुकड़ी को ढेर कर गए।
अपने अंतिम श्वास लेते हुए जुझार सिंघजी ज़मीन पर गिर पड़े, वे शहादत को काफी करीब से देख रहे थे और गर्व महसूस कर रहे थे। किंतु जुझार सिंघजी की इस बड़ी शहादत को नजरंदाज करते हुए मुगल फौज ने एक शर्मनाक हरकत यह की कि आखिरी श्वास लेते हुए जुझार सिंघजी को हाथी के पांव के तले कुचलवा दिया।
गुरु जी के पुत्रों की इसी महान शहादत को सम्मान देते हुए सिख संगत उन्हें ‘बाबा’जी कहकर पुकारती है – बाबा अजीत सिंघजी एवं बाबा जुझार सिंह जी।
छोटे साहिबजादे
“निक्कियां जिंदां, वड्डा साका”….
गुरु गोबिंद सिंघ जी के छोटे साहिबजादों की शहादत को जब भी याद किया जाता है तो सिख संगत के मुख से यह लफ्ज़ ही बयां होते हैं।
सरसा नदी पर जब गुरु गोबिंद सिंघ जी का परिवार जुदा हो रहा था, तो एक ओर जहां बड़े साहिबजादे गुरु जी के साथ चले गए, वहीं दूसरी ओर छोटे साहिबजादे जोरावर सिंघ और फतेह सिंघ, माता गुजरी जी के साथ रह गए थे। उनके साथ ना कोई सेवादार थे और ना ही कोई उम्मीद थी जिसके सहारे वे परिवार से वापस मिल सकते।
अचानक रास्ते में उन्हें गंगू मिल गया, जो किसी समय पर गुरु महल की सेवा करता था। गंगू ने उन्हें यह आश्वासन दिलाया कि वह उन्हें उनके परिवार से मिलाएगा और तब तक के लिए वे लोग उसके घर में रुक जाएं।
गुजरी जी और साहिबजादे गंगू के घर चले तो गए लेकिन वे गंगू की असलियत से वाकिफ नहीं थे। गंगू ने लालच में आकर तुरंत वजीर खां को गुरु गोबिंद सिंघजी के माताजी और छोटे साहिबजादों उसके यहां होने की खबर दे दी जिसके बदले में वजीर खां ने उसे सोने की मोहरें भेंट की।
खबर मिलते ही वजीर खां के सैनिक माता गुजरीजी और 9 वर्ष की आयु के साहिबजादा जोरावर सिंघ जी और 7 वर्ष की आयु के साहिबजादा फतेह सिंघजी को गिरफ्तार करने गंगू के घर पहुंच गए। उन्हें लाकर ठंडे बुर्ज में रखा गया और उस ठिठुरती ठंड से बचने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा तक ना दिया गया था।
रात भर ठंड में ठिठुरने के बाद सुबह होते ही दोनों साहिबजादों को वजीर खां के सामने पेश किया गया, जहां भरी सभा में उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा गया।
कहते हैं सभा में पहुंचते ही बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों साहिबजादों ने वाहेगुरु जी का खालसा वाहेगुरु जी की फतेह कह कर ज़ोर से जयकारा लगाया “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल
यह देख सब दंग रह गए, वजीर खां की मौजूदगी में कोई ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता लेकिन गुरु जी की नन्हीं जिंदगियां ऐसा करते समय एक पल के लिए भी ना डरीं। सभा में मौजूद मुलाजिम ने साहिबजादों को वजीर खां के सामने सिर झुकाकर सलामी देने को कहा, लेकिन इस पर उन्होंने जो जवाब दिया वह सुनकर सबने चुप्पी साध ली।
दोनों ने सिर ऊंचा करके जवाब दिया कि ‘हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते। ऐसा करके हम अपने दादाजी गुरु तेग बहादर जी की कुर्बानी को बर्बाद नहीं होने देंगे, यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादाजी को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवाना सही समझा, लेकिन झुकना नहीं’।
वजीर खां ने दोनों साहिबजादों को काफी डराया, धमकाया और प्यार से भी इस्लाम कबूल करने के लिए लालच देकर राज़ी करना चाहा, लेकिन दोनों अपने निर्णय पर अटल थे।
आखिर में दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवारों में चुनवाने का ऐलान किया गया। कहते हैं दोनों साहिबजादों को जब दीवार में चुनना आरंभ किया गया तब उन्होंने ‘जपुजी साहिब’ का पाठ करना शुरू कर दिया और दीवार पूरी होने के बाद अंदर से जयकारा लगाने की आवाज़ भी आई।
ऐसा कहा जाता है कि वजीर खां के कहने पर दीवार को कुछ समय के बाद तोड़ा गया, यह देखने के लिए कि साहिबजादे अभी जिंदा हैं या नहीं। तब दोनों साहिबजादों के कुछ श्वास अभी बाकी थे, लेकिन मुगल मुलाजिमों का कहर अभी भी जिंदा था। उन्होंने दोनों साहिबजादों को जबर्दस्ती मौत के गले लगा दिया।
उधर दूसरी ओर साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने अकाल पुरख को इस गर्वमयी शहादत के लिए शुक्रिया किया और अपने प्राण त्याग दिए
देश धर्म के लिए गुरु साहब ने अपना पूरा परिवार वार दिया आज भी सीख इन दिनों मे किसी भी प्रकार के जश्न मनाने और शादी बिहा जैसे कारज नहीं मनाते पंजाब तरफ के लोग आज भी इन दिनों को याद करते हुए पलंग पर ना सोते हुए जमीन पर ही सोते हैं इस साल विशेष तौर पर श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार जी ने गुरुद्वारा आदि में किसी भी प्रकार का मिठाई या मीठा प्रसाद संगत को देने से मना किया है ताकि हम आने वाले बच्चों को की शहादत से अवगत करा सकें और इन दिनों को कभी ना भूल सके नांदेड़ के सिख आज भी इन दिनों में शाम के वक्त गुरुद्वारा जाकर उन छोटे साहबजादे को याद करके पाठ आदि करते हैं.
गुरु जी के पुत्रों की इसी महान शहादत को सम्मान देते हुए सिख संगत उन्हें ‘साहेबजादे;बाबाजी कहकर पुकारती है
-मनप्रीत सिंघ अवतार सिंघ कारागीर