श्री गुरू गोबिंदसिंघजी की सीख; आदर्श से कुछ सीख ले कर उसे सभी ने अपनाने की आज जरूरत है!

हर कोई चाहता है इतिहास में अपना नाम सदैव कायम रहे पुरे दुनिया के इतिहास पर हम दृष्टी डालते है तो हमें अनेक योध्दावों ने, राजाओं नें अपने राज्य विस्तार के लिये, धन दौलत के लिये या अन्य राज्य पर कब्जा करने के लिये अथवा कीसी पराई स्री को हासिल करने के इरादे से, राजसत्ता टिकाये रखने के लिये, तो कुछ राजाओं नें अपने धर्म वृध्दी तथा धर्म परिवर्तन के लिये तो कुछ राजाओं ने अपने गुणगान करवाने के उद्देश से लढाईयां लढी थी ऐसा नजर आता है। परंतु श्री गुरू गोबिंदसिंघजी इनके जीवन पर थोडी नजर डाले तो उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन धर्म रक्षा, अत्याचार के विरोध में, दुर्बल लोगो पर हो रहे अन्याय को रोकने के लिये बहोत सी लढाईयां लढ कर लोगे के धर्म रक्षा हेतू फिर हिन्दू धर्म के जनेवू की रक्षा का मामला क्यों ना हो इन सभी बातों के लिये अपने पुरे परीवार का बलीदान देकर धर्म की रक्षा की यह एक पुरी दुनिया में अनोखी तथा आश्चर्यकारक बात की मिसाल केवल और केवल एक श्री गुरू गोबिंद सिंघ जी के जीवन का उदाहरण देखने को मिलेगा।
श्री गुरू गोबिंदसिंघजी सिक्ख पंथ के देहधारी दसवे आखरी गुरु है। श्री गुरू गोबिंदसिंघजी कभी भी राजसत्ता,धन दौलत, या अपनी प्रसिध्दी पाने के उद्देश से एक भी लढाई नहीं लढी….श्री गुरू गोबिंदसिंघजी का जन्म पटना शहर में 1666 माता गुजरी जी की कोख से श्री गुरू तेगबहादरजी के घर हुआ, उस वक्त श्री गुरु तेगबहादरजी पटना से बाहर थे। तेग बहादर जी के संदेश द्वारा कहने पर गुरुजी का नाम गोबिंद राय रखा गया। इ स 1699 में गोबिंदरायजी ने आनंदपुर पंजाब में पुरे भारत में सिक्ख लोगो को आंनदपूर आने के लिये निमंत्रित कीय। यहॉं मैं विषेश तौर पर मेरे नीजी विचार से कहना चाहुंगा सिक्ख याने जो श्री नानकदेवजी महाराज के बताये हुये मार्ग तथा वसूलो पर चल कर हर टाईम कुछ नया सीख कर अंधश्रद्धा से,गलत धारणायें,गलत परंपराओं से दुर रहता है वह हर एक व्यक्ती खुद को सिक्ख कह सकता है।
आनंदपुर को निमंत्रण देने का कारण हिन्दू धर्म के जनेवू की रक्षा के लिये इस के पहले श्री गुरू तेगबहादरजी ने अपने तीन शिष्यो के साथ अपना बलिदान दिये थे। तब लोगो में इतनी हिम्मत नंही थी की आत्मसुरक्षा, महीलाओं की इज्जत की रखवाली करना, आत्मसन्मान तथा अपने उपर हो रहे अत्याचार के विरूद्ध खडे हो सके इतनी हिम्मत नंही जुटा पा रहे थे लोग। तथा जात गोत्र के नाम पर एक दुसरे के घृणा करना,दलितो के साथ जानवरो जैसा सलूक करना ऐसी बातों का बोलबाला था। शायद यही सब बातों को ध्यान में रखते हुये कुछ नयी सोच रखते हुये श्री गुरू गोबिंदसिंघजी ने खालसा पंथ की स्थापना करने के इरादे से,सभी सिक्ख जगत को आंनदपूर का निमंत्रण दीये होंगे।
यहॉं एक बात पर विषेश गौर करना होगा उस टाईम रास्तों की सुविधा का अभाव,आने जाने के लिये कोई मोटारगाडी, ट्रेन या अन्य साधन उपलब्ध नहीं थ। तथा ना ही उस टाईम नेट की कोई सुविधा उपलब्ध थी फिर भी गुरु महाराज ने पुरे भारत में उस टाईम के भारत की सीमा आज के वर्तमान क्षेत्र से अनेक गुना बहोत दुर दुर तक फैली हुई थी तो सभी तरफ आनंदपुर में आने का संदेश कैसे पंहुचाये होंगे और लोकेशन कैसे समझाये होगे। यह एक संशोधन का विषय है। एक और बात पर विषेश रूप से गौर करना होगा श्री गुरु नानक देव जी महाराज ने बहोत वर्षों पहले नांदेड से बिदर जाते हुये कर्नाटक के लोगो को जनकल्याण की बातों को बताये थे उस पर चलते हुये उनके अनुयायी श्री गुरू गोबिंदसिंघजी के बुलावे पर उनका एक जत्था कर्नाटक से आंनदपूर पंहुच गया।श्री जगत गुरु नानक देवजी में कैसी अलौकिक शक्ती होगी थोडे समय में लोगो में मानवकल्याण की बातें भरने में सफल हुये। श्री गुरू गोबिंदसिंघजी ने आये हुये सिक्खो के सामने हाथ में नंगी तलवार तथा जोशभरे आवाज में कहा मुझे धर्म के लिये एक व्यक्ती के शिश की आवश्यकता है जो कोई अपना धर्म के खातीर बलीदान देने को तैय्यार है सामने आ जाओ। सभी तरफ शांती छा गयी, इतिहास के मुताबिक उस वक्त वंहा नव्वद हजार की संख्या में पुरे भारत से आये हुये सिक्ख उपस्थित थे। पहली आवाज पर कोई भी आगे नहीं बढने पर और जोर से जोशभरी आवाज लगाई।जब तिसरी बार आवाज लगाने पर। लाहोर निवासी भाई दयारामजी जो क्षत्रिय थे आगे बढ कर गुरु महाराज के सामने अपना शिश नतमस्तक कर के खडे हो गये, गुरूजी ने उन्हें अंदर तंबू में ले जा कर एक जोर की आवाज आयी तथा फिर खुन से लथपत तलवार ले कर शोर्यरूप धारण कर के गुरु महाराज ने और एक शिश की मांग की। अब दिल्ली के जाट धर्मदासजी बलिदान देने के लिये आगे बढे, इनके बाद भाई मोहकमचंदजी द्वारका निवासी जो दर्जी समाज के थे, फिर बिदर कर्नाटक के भाई साहिबचंदजी जो नाई परिवार से थे, और अब भाई हिम्मतराय जी जगन्नाथ पुरी के निवासी झीऊर जात ( झीऊर याने शिकार करने वाले) अपना बलिदान देने आगे बढे, हर टाईम गुरु महाराज उन्हें तंबू में ले गये और खुन से भरी हुई तलवार लेकर बाहर आये। जब पांच लोग हो गये तो गुरु महाराज ने पांचों अच्छी वेशभूषा के साथ बाहर ले आये।
इस के उपरांत गुरु महाराज ने एक लोहे के बाटे में शुद्ध पाणी डाल कर बाणी का जाप करते हुये खंडे को बाटे में हीलाते हुये अमृत तयार कर के कहा “सव्वालाख से एक लढाऊं तबै गोबिंदसिंघ नाम कंहाऊ’ इस का मतलब मैं ऐसा व्यक्ती तयार करूगां जो अकेले सव्वा लाख लोगो का मुकाबला कर सकेगा। यह अमृत तयार करते हुये यहॉं एक घटना हुई थोडा अमृत जमीन पर गिर गया वंहा दो चिडीया थी उन्होंने वह पी लिया तथा आपस में लढ कर मर गयी। इस दृष्य को देख कर माताजीतोजी आगे बढ कर गुरुजी की आग्या ले कर उस अमृत के बाटे में बताशे डाल दीये इस के पीछे का उद्देश शौर्यता के साथ साथ उग्रता नहीं आनी चाहिए शौर्यता के साथ साथ नम्रता भी होनी चाहिए।
जब अमृत तयार हो गया तो पांचों को एक कतार में वीर आसन में बिठा कर सभी के मुंह तथा सर पर पांच पांच बार अमृत का जोर से छिडकाव कर के जोर से “वाहेगुरूजी का खालसा वाहेगुरूजी की फतेह’ का खुद नारा दे कर सभी को वह दोहराने के लिये कहे। वाहेगुरूजी का खालसा वाहेगुरूजी की फतेह। का मतलब आप वाहेगुरूजी याने इस संपूर्ण ब्रम्हांड को चलाने वाले परमात्मा के बंदे हो और हर वक्त उस परमात्मा की फतेह ही होती है। इस के बाद बारी बारी से एक ही बाटे से सभी को अमृत पीला कर, जात पात का भेदभाव मिटा कर श्री गुरू गोबिंदसिंघजी के कथन अनुसार “मानस की जात सबै एकबो पहचानबो ‘ याने इन्सानियत की केवल एक ही जात है, इस बात को जात पात का भेद मिटा कर एक नया जोश भर दीये,इन पांचों को पंजप्यारें साहीबान नाम से संबोधित कर के आज के बाद पुरी सिक्ख जगत को पंजप्यारें साहीबान के आदेश को मानने की ताकीद दी।
खालसा पंथ की दिक्षा देने के पश्चात पुरूषो के नाम के आगे सिंघ याने शेर तथा महीलाओं के नाम के आगे कौर याने राजकुमारी लगाने की प्रथा चलाई। साथ ही जो भी व्यक्ती पुरुष हो या स्त्री खालसा पंथ की पंजप्यारें साहीबानद्वारा अमृतपान करके खालसा पंथ अंगिकार करता है सभी को “क’ अक्षर के पांच चीजों को हरदम धारण करने के निर्देश दीये। 1) शरीर के कीसी भी केश काटने को मनाई की गयी। इस के पीछे शायद गुरू महाराज का उद्देश मेरे नीजी विचार से केश शक्तीवर्धक है वैसै देखा जाये तो पुरी दुनिया में पुराने समय में कोई भी केश कत्तल नहीं करते थे। 2) “किरपाण’ तलवार को किरपाण नाम दीया गया यह किरपाण आत्मसुरक्षा हेतू, तथा कीसी दुर्बल पर अत्याचार हो रहा है या अन्याय हो तो उनके विरोध में इस का उपयोग करने की ताकीद दी ना की कीसी को डराने के लिये। 3) “कंघा’ यह लकडी का बना हुआ रहता है, केश को अच्छी तरह सफाई से रखने के लिये इस का उपयोग कीया जाता है। 4) “कछहरा’ कछहरा याने चढ्ढी के बदले सिक्खों का अंतर्वस्त्र है जो सफेद कपडे से खुला, शरीर के हालचाल करने में आराम देने में सहायक सिद्ध होता है, साथ ही कभी गलती से कोई सिक्ख व्याभिचार के लिये प्रेरीत हो गया तो उसे इस की बनावट अलग होने से उसे उस दुष्कर्म से रूकने की याद दिलाने में सहायक होता है। 4) “कडा’ यह शुद्ध लोहे से बनाया हुआ हाथ में धारण करने की वस्तू है। इन्सान हर काय हाथ से करता है, ऐसे वक्त कभी कुछ हाथ से बुरा काम होने जा रहा है तो कडा याद दीलाता है के तुम श्री गुरू गोबिंदसिंघजी के खालसा हो ऐसा काम नहीं करना चाहिए।
इस बाद दशम गुरुजी ने सिक्खों को चार बातों से परहेज करने की सक्त ताकीद दी है, 1) कभी भी पर पुरूष या पराई स्री के साथ व्याभिचार के संबंध नहीं बनाना। पर पुरुष को अपने भाई, पिता समान मानना, पराई स्री को अपनी बहन तथा माता का सम्मान देना।2) कभी भी सिक्ख ने तंबाखू जन्य पदार्थ सेवन नहीं करना। यहॉं एक विषेश रूप से उल्लेख करना चाहुंगा गुरु महाराज की दुरदृष्टी कीतनी अनोखी थी आज वर्तमान में तंबाखू जन्य पदार्थ सेवन से कैन्सर तथा पर पुरुष पराई स्री से शारीरिक संबंध बनाने पर एड्‌स जैसी महामारी के अनेक उदाहरणं देखने को मिल रहे है.तथा सरकार भी ऐसी बातों का परहेज करने का प्रचार कर रही है। 3) कभी भी सिक्ख ने हलाल का मांस सेवन नहीं करना चाहिए। 4) किरपाण का उपयोग अन्याय अत्याचार के विरोध में करना किसी दुर्बल को तकलीफ या डराने के लिये नहीं। जगतपालनहार एक परमात्मा की आराधना करना।
इस वक्त यहॉं पर एक अनोखी तथा केवल और केवल एक ऐसी बात हुई की आज तक ऐसी कंही पर देखने को नहीं मिलेगी। श्री गोबिंद राय जी ने पंजप्यारों को खालसा बना देने के पश्चात उन के सामने बैठ कर खुद को खालसा पंथ की दिक्षा देने के लिये विनंती की। याने आप गुरु होते हुये भी अपने ही शिष्यो से दीक्षा लेकर खुद गोबिंद राय से गोबिंदसिंघ बन गये। इसी लिये सिक्ख जगत में श्री गुरु गोबिंदसिंघजी को “आपे गुरु चेला’ नाम से भी संबोधित कीया जाता है।
यहॉं एक बात पर गौर करना होगा श्री गुरु गोबिंदसिंघजी की लिला बोलो या योगायोग थोडा पंजप्यारों के नाम पर दृष्टी डालते है तो धर्म के रास्ते पर चलना है दया का रहना आवश्यक है। मन दया आ गयी तो धर्म तक पंहुच सकते है। जब धर्म का रास्ता अपनाये तो मोह कम हो जाता है। जब मोह कम हो गया तो साहीब बनना निश्चित है और यह सब बातों को अपनाते है तो स्वाभाविक हिम्मत आ ही जाती है। यह पंजप्यारें साहीबान के नाम के अर्थ है यह मेरा नीजी विचार है। श्री गुरु गोबिंदसिंघजी अपने पिता तथा उनके तीन शिष्यो के हिन्दू धर्म के रक्षा के लिये शहीदी होने के पश्चात बहोत कम उम्र में ही 11 नोव्हेंबर 1675 को गुरु गद्दी पर विराजमान हुये। गुरूजी की कुल आयु केवल 42 वर्षे की रही परंतु इस दौरान उन्हें धर्म रक्षा, आत्मसन्मान, दुर्बल लोगो पर हो रहे अत्याचार अन्याय रोकने के लिये कभी लढाई लढी तो कभी आत्मरक्षा तथा लोगो के रक्षा के लिये अनेक हिन्दू मुस्लिम राजाओं से लढाईयां लढनी पडी और सभी में गुरु महाराज ने जीत हासिल कीये। गुरु महाराज के फौज में हर धर्म के लोगो को शामिल कर के केवल धर्म रक्षा के लिये लढाईयां लढी ना के कीसी विशिष्ट जात या धर्म के खिलाफ नंही।
श्री गुरु गोबिंदसिंघजी पंजाबी, फारसी, ब्रज, हिन्दी, अरबी भाषाओं में माहीर थे। साथ ही एक अच्छे कवी, योध्दा,संत, लेखक थे उनका अपना एक ग्रंथ श्री दशम ग्रंथ नाम से उपलब्ध है। गुरूजी की तीन पत्नीयां माता जीतोजी, माता सुंदरीजी और माता साहीबदेवाजी थे। गुरुजी के चार पुत्र थे साहब अजित सिंघजी, साहब जुझार सिंघजी चमकौर के युद्ध में शहीदी को प्राप्त हुये, और साहब जोरावर सिंघजी तथा साहब फतेहसिंघजी को बहोत कम आयु में धर्म रक्षा हेतू अपनी शहीदी दे दी, सरहंद के नवाब ने उन्हें जिंदा दिवाल में चुनवा दीया। इतनी कम उम्र में धर्म के रक्षा के लिये बलीदान देने वालों में ऐसी मिसाल केवल और केवल गुरु महाराज के छोटे दोनो साहीबजादों के नाम दर्ज है। इसी हादसे से गुरुजी के माताजी माता गुजरीजी ने अपना देह त्याग दीये।
इस के बाद गुरूजी दक्षिण की ओर प्रस्थान कर के नांदेड में आ कर अपने सतयुग में तप किये हुये स्थान को प्रगट कर के देहधारी परंपरा को विराम दे कर ग्यान रूपी श्री गुरू ग्रंथ साहिबजी को गुर गद्दी गुरु ग्रंथ साहिब के सामने पांच पैसे नारीयल रख कर गुरू ग्रंथ साहिबजी को गुरगद्दी इ.स. 1708 में दी। जो आज वर्तमान में संचखड हजुर साहब अबचलनगर नाम से प्रसिद्ध है। सभी सिक्ख जगत को श्री गुरू गोबिंद सिंघजी ने आदेश दीये “सब सिक्खन को हुकम है गुरु मानीयो ग्रंथ गुरु ग्रंथजी मानीयो प्रगट गुरा की देह’। याने आज के बाद श्री गुरु ग्रंथ साहिब के अलावा किसी अन्य को गुरु नहीं मानना, गुरु ग्रंथ साहिब का अध्ययन कीये तो साक्षात गुरु के दर्शन होंगे। श्री गुरू गोबिंद सिंघजी अच्छे कवी, लेखक, संत, योध्दा, राजनितिज्ञ थे गुरुजी ने लोहगड,केशगड, फतेहगड होलगड तथा आनंदगड किलों का निर्माण कीये थे।गुरुजी ने अपनी अलौकिक शक्ती से श्री गुरू ग्रंथ साहिबजी की वाणी उच्चारीत कर के भाई मनीसिंघजी से गुरु ग्रंथ साहिबजी लिखवाकर उस में श्री गुरू तेगबहादरजी की वाणी संमीलीत कर के संपूर्ण स्वरूप प्रदान कीये। इस के पहले श्री गुरु ग्रंथ साहिबजी में केवल पांच गुरूओं की ही वाणी दर्ज थी। श्री गुरु गोबिंद सिंघजी के जन्म उत्सव पर हम सब उनके बताये मार्ग तथा उनके आदर्शो का पालन करने की जरुरत महसुस हो रही है। लोग अपने धर्म के मार्ग से हट कर जाती भेद,द्वेश भावना बढा रहे है। अगर उनके सिध्दांत को अपना कर उस मार्ग पर चलने का प्रयास किये तो सही मायने में उनके जन्म उत्सव मनाना सार्थक होगा। भुल चुक की माफी चाहुंगा।
लेखक :-राजेंद्रसिंघ नौनिहालसिंघ,
शाहू इलेक्ट्रिकल ट्रेनंर नांदेड 77000639999

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